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Wednesday, 26 February 2014
Monday, 17 February 2014
Sai Baba Quotes Vani
My eye is ever on those who love me. - Sai Baba
We pray to you dear Sai Baba please take all our troubles away and bring peace and happiness in our lives. Sai Ram
Charity is the ornament for the hand .
Truth is the ornament for the throat .
Listening to sacred texts is the ornament for the ears .
Of what use are all other jewels ?!
- Sai Baba
Of all good deeds, the best is Seva, intelligent and loving service to those in need. The body is the Temple of God. He resides therein; the intellect, the mind and the sense which constitute the Temple are His, not ours to be handled as our whims dictate. They are His instruments, to be used by Him, for Him - Sai Baba
Stay by me and keep quiet. I will do the rest- Sai Baba
Man's entire life is a procession of worries from birth to death . To get over these worries , at least from now on , turn your mind towards God . Love of God is the panacea of all worries . Hence , Develop Love for God - Sai Baba
We pray to you dear Sai Baba please take all our troubles away and bring peace and happiness in our lives. Sai Ram
Charity is the ornament for the hand .
Truth is the ornament for the throat .
Listening to sacred texts is the ornament for the ears .
Of what use are all other jewels ?!
- Sai Baba
Of all good deeds, the best is Seva, intelligent and loving service to those in need. The body is the Temple of God. He resides therein; the intellect, the mind and the sense which constitute the Temple are His, not ours to be handled as our whims dictate. They are His instruments, to be used by Him, for Him - Sai Baba
Stay by me and keep quiet. I will do the rest- Sai Baba
Man's entire life is a procession of worries from birth to death . To get over these worries , at least from now on , turn your mind towards God . Love of God is the panacea of all worries . Hence , Develop Love for God - Sai Baba
Tuesday, 11 February 2014
Budhvar Vart Kath - Wednesday Fast Kath
Budhvar Vart Kath - Wednesday Fast Kath
एक समय किसी नगर एक साहुकार था| वह बहुत धनवान था। साहुकार का विवाह नगर की सुंदर और गुणवंती लड़की से हुआ था। एक बार वो अपनी पत्नी को लेने बुधवार के दिन ससुराल गया। पत्नी के माता-पिता से विदा कराने के लिए कहा। माता-पिता बोले- 'बेटा, आज बुधवार है। बुधवार को किसी भी शुभ कार्य के लिए यात्रा नहीं करते।' लेकिन वो नहीं माना। उसने वहम की बातों को न मानने की बात कही।
दोनों ने बैलगाड़ी से यात्रा प्रारंभ की। दो कोस की यात्रा के बाद उसकी गाड़ी का एक पहिया टूट गया। वहाँ से दोनों ने पैदल ही यात्रा शुरू की। रास्ते में पत्नी को प्यास लगी। साहुकार उसे एक पेड़ के नीचे बैठाकर जल लेने चला गया।
थोड़ी देर बाद जब वो कहीं से जल लेकर वापस आया तो वह बुरी तरह हैरान हो उठा क्योंकि उसकी पत्नी के पास उसकी ही शक्ल-सूरत का एक दूसरा व्यक्ति बैठा था। पत्नी भी साहुकार को देखकर हैरान रह गई। वह दोनों में कोई अंतर नहीं कर पाई।साहुकार ने उस व्यक्ति से पूछा- 'तुम कौन हो और मेरी पत्नी के पास क्यों बैठे हो ?' साहुकार की बात सुनकर उस व्यक्ति ने कहा- 'अरे भाई, यह मेरी पत्नी है। मैं अपनी पत्नी को ससुराल से विदा करा कर लाया हूँ। लेकिन तुम कौन हो जो मुझसे ऐसा प्रश्न कर रहे हो?'
साहुकार ने लगभग चीखते हुए कहा- 'तुम जरूर कोई चोर या ठग हो। यह मेरी पत्नी है। मैं इसे पेड़ के नीचे बैठाकर जल लेने गया था।' इस पर उस व्यक्ति ने कहा- 'अरे भाई! झूठ तो तुम बोल रहे हो।
पत्नी को प्यास लगने पर जल लेने तो मैं गया था। मैंने तो जल लाकर अपनी पत्नी को पिला भी दिया है। अब तुम चुपचाप यहाँ से चलते बनो। नहीं तो किसी सिपाही को बुलाकर तुम्हें पकड़वा दूँगा।'
दोनों एक-दूसरे से लड़ने लगे। उन्हें लड़ते देख बहुत से लोग वहाँ एकत्र हो गए। नगर के कुछ सिपाही भी वहाँ आ गए। सिपाही उन दोनों को पकड़कर राजा के पास ले गए। सारी कहानी सुनकर राजा भी कोई निर्णय नहीं कर पाया। पत्नी भी उन दोनों में से अपने वास्तविक पति को नहीं पहचान पा रही थी।
राजा ने दोनों को कारागार में डाल देने के लिए कहा। राजा के फैसले पर असली साहुकार भयभीत हो उठा। तभी आकाशवाणी हुई- साहुकार तूने माता-पिता की बात नहीं मानी और बुधवार के दिन अपनी ससुराल से प्रस्थान किया। यह सब भगवान बुधदेव के प्रकोप से हो रहा है।'
साहुकार ने भगवान बुधदेव से प्रार्थना की कि 'हे भगवान बुधदेव मुझे क्षमा कर दीजिए। मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई। भविष्य में अब कभी बुधवार के दिन यात्रा नहीं करूँगा और सदैव बुधवार को आपका व्रत किया करूँगा।'
साहुकार के प्रार्थना करने से भगवान बुधदेव ने उसे क्षमा कर दिया। तभी दूसरा व्यक्ति राजा के सामने से गायब हो गया। राजा और दूसरे लोग इस चमत्कार को देख हैरान हो गए। भगवान बुधदेव की इस अनुकम्पा से राजा ने साहुकार और उसकी पत्नी को सम्मानपूर्वक विदा किया।
कुछ दूर चलने पर रास्ते में उन्हें बैलगाड़ी मिल गई। बैलगाड़ी का टूटा हुआ पहिया भी जुड़ा हुआ था। दोनों उसमें बैठकर नगर की ओर चल दिए। साहुकार और उसकी पत्नी दोनों बुधवार को व्रत करते हुए आनंदपूर्वक जीवन-यापन करने लगे।
भगवान बुधदेव की अनुकम्पा से उनके घर में धन-संपत्ति की वर्षा होने लगी। जल्दी ही उनके जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ भर गईं। बुधवार का व्रत करने से स्त्री-पुरुषों के जीवन में सभी मंगलकामनाएँ पूरी होती हैं।
एक समय किसी नगर एक साहुकार था| वह बहुत धनवान था। साहुकार का विवाह नगर की सुंदर और गुणवंती लड़की से हुआ था। एक बार वो अपनी पत्नी को लेने बुधवार के दिन ससुराल गया। पत्नी के माता-पिता से विदा कराने के लिए कहा। माता-पिता बोले- 'बेटा, आज बुधवार है। बुधवार को किसी भी शुभ कार्य के लिए यात्रा नहीं करते।' लेकिन वो नहीं माना। उसने वहम की बातों को न मानने की बात कही।
दोनों ने बैलगाड़ी से यात्रा प्रारंभ की। दो कोस की यात्रा के बाद उसकी गाड़ी का एक पहिया टूट गया। वहाँ से दोनों ने पैदल ही यात्रा शुरू की। रास्ते में पत्नी को प्यास लगी। साहुकार उसे एक पेड़ के नीचे बैठाकर जल लेने चला गया।
थोड़ी देर बाद जब वो कहीं से जल लेकर वापस आया तो वह बुरी तरह हैरान हो उठा क्योंकि उसकी पत्नी के पास उसकी ही शक्ल-सूरत का एक दूसरा व्यक्ति बैठा था। पत्नी भी साहुकार को देखकर हैरान रह गई। वह दोनों में कोई अंतर नहीं कर पाई।साहुकार ने उस व्यक्ति से पूछा- 'तुम कौन हो और मेरी पत्नी के पास क्यों बैठे हो ?' साहुकार की बात सुनकर उस व्यक्ति ने कहा- 'अरे भाई, यह मेरी पत्नी है। मैं अपनी पत्नी को ससुराल से विदा करा कर लाया हूँ। लेकिन तुम कौन हो जो मुझसे ऐसा प्रश्न कर रहे हो?'
साहुकार ने लगभग चीखते हुए कहा- 'तुम जरूर कोई चोर या ठग हो। यह मेरी पत्नी है। मैं इसे पेड़ के नीचे बैठाकर जल लेने गया था।' इस पर उस व्यक्ति ने कहा- 'अरे भाई! झूठ तो तुम बोल रहे हो।
पत्नी को प्यास लगने पर जल लेने तो मैं गया था। मैंने तो जल लाकर अपनी पत्नी को पिला भी दिया है। अब तुम चुपचाप यहाँ से चलते बनो। नहीं तो किसी सिपाही को बुलाकर तुम्हें पकड़वा दूँगा।'
दोनों एक-दूसरे से लड़ने लगे। उन्हें लड़ते देख बहुत से लोग वहाँ एकत्र हो गए। नगर के कुछ सिपाही भी वहाँ आ गए। सिपाही उन दोनों को पकड़कर राजा के पास ले गए। सारी कहानी सुनकर राजा भी कोई निर्णय नहीं कर पाया। पत्नी भी उन दोनों में से अपने वास्तविक पति को नहीं पहचान पा रही थी।
राजा ने दोनों को कारागार में डाल देने के लिए कहा। राजा के फैसले पर असली साहुकार भयभीत हो उठा। तभी आकाशवाणी हुई- साहुकार तूने माता-पिता की बात नहीं मानी और बुधवार के दिन अपनी ससुराल से प्रस्थान किया। यह सब भगवान बुधदेव के प्रकोप से हो रहा है।'
साहुकार ने भगवान बुधदेव से प्रार्थना की कि 'हे भगवान बुधदेव मुझे क्षमा कर दीजिए। मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई। भविष्य में अब कभी बुधवार के दिन यात्रा नहीं करूँगा और सदैव बुधवार को आपका व्रत किया करूँगा।'
साहुकार के प्रार्थना करने से भगवान बुधदेव ने उसे क्षमा कर दिया। तभी दूसरा व्यक्ति राजा के सामने से गायब हो गया। राजा और दूसरे लोग इस चमत्कार को देख हैरान हो गए। भगवान बुधदेव की इस अनुकम्पा से राजा ने साहुकार और उसकी पत्नी को सम्मानपूर्वक विदा किया।
कुछ दूर चलने पर रास्ते में उन्हें बैलगाड़ी मिल गई। बैलगाड़ी का टूटा हुआ पहिया भी जुड़ा हुआ था। दोनों उसमें बैठकर नगर की ओर चल दिए। साहुकार और उसकी पत्नी दोनों बुधवार को व्रत करते हुए आनंदपूर्वक जीवन-यापन करने लगे।
भगवान बुधदेव की अनुकम्पा से उनके घर में धन-संपत्ति की वर्षा होने लगी। जल्दी ही उनके जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ भर गईं। बुधवार का व्रत करने से स्त्री-पुरुषों के जीवन में सभी मंगलकामनाएँ पूरी होती हैं।
Mangalvar Vrat Katha -Tuseday fast Kath and Arti
Mangalvar Vrat Katha -Tuseday fast Kath and Arti
ऋषिनगर में केशवदत्त ब्राह्मण अपनी पत्नी अंजलि के साथ रहता था। केशवदत्त के घर में धन-संपत्ति की कोई कमी नहीं थी। नगर में सभी केशवदत्त का सम्मान करते थे, लेकिन केशवदत्त संतान नहीं होने से बहुत चिंतित रहता था।
दोनों पति-पत्नी प्रति मंगलवार को मंदिर में जाकर हनुमानजी की पूजा करते थे। विधिवत मंगलवार का व्रत करते हुए कई वर्ष बीत गए। ब्राह्मण बहुत निराश हो गया, लेकिन उसने व्रत करना नहीं छोड़ा।
कुछ दिनों के बाद केशवदत्त हनुमानजी की पूजा करने के लिए जंगल में चला गया। उसकी पत्नी अंजलि घर में रहकर मंगलवार का व्रत करने लगी। दोनों पति-पत्नी पुत्र-प्राप्ति के लिए मंगलवार का विधिवत व्रत करने लगे। कुछ दिनों बाद अंजलि ने अगले मंगलवार को व्रत किया लेकिन किसी कारणवश उस दिन अंजलि हनुमानजी को भोग नहीं लगा सकी और उस दिन वह सूर्यास्त के बाद भूखी ही सो गई।
अगले मंगलवार को हनुमानजी को भोग लगाए बिना उसने भोजन नहीं करने का प्रण कर लिया। छः दिन तक अंजलि भूखी-प्यासी रही। सातवें दिन मंगलवार को अंजलि ने हनुमानजी की पूजा की, लेकिन तभी भूख-प्यास के कारण अंजलि बेहोश हो गई।
हनुमानजी ने उसे स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा- 'उठो पुत्री! मैं तुम्हारी पूजा-पाठ से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हें सुंदर और सुयोग्य पुत्र होने का वर देता हूँ।' यह कहकर हनुमानजी अंतर्धान हो गए। तत्काल अंजलि ने उठकर हनुमानजी को भोग लगाया और स्वयं भोजन किया।
हनुमानजी की अनुकम्पा से अंजलि ने एक सुंदर शिशु को जन्म दिया। मंगलवार को जन्म लेने के कारण उस बच्चे का नाम मंगलप्रसाद रखा गया। कुछ दिनों बाद अंजलि का पति केशवदत्त भी घर लौट आया। उसने मंगल को देखा तो अंजलि से पूछा- 'यह सुंदर बच्चा किसका है?' अंजलि ने खुश होते हुए हनुमानजी के दर्शन देने और पुत्र प्राप्त होने का वरदान देने की सारी कथा सुना दी। लेकिन केशवदत्त को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। उसके मन में पता नहीं कैसे यह कलुषित विचार आ गया कि अंजलि ने उसके साथ विश्वासघात किया है। अपने पापों को छिपाने के लिए अंजलि झूठ बोल रही है।
केशवदत्त ने उस बच्चे को मार डालने की योजना बनाई। एक दिन केशवदत स्नान के लिए कुएँ पर गया। मंगल भी उसके साथ था। केशवदत्त ने मौका देखकर मंगल को कुएँ में फेंक दिया और घर आकर बहाना बना दिया कि मंगल तो कुएँ पर मेरे पास पहुँचा ही नहीं। केशवदत्त के इतने कहने के ठीक बाद मंगल दौड़ता हुआ घर लौट आया।
केशवदत्त मंगल को देखकर बुरी तरह हैरान हो उठा। उसी रात हनुमानजी ने केशवदत्त को स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा- 'तुम दोनों के मंगलवार के व्रत करने से प्रसन्न होकर, पुत्रजन्म का वर मैंने दिया था। फिर तुम अपनी पत्नी को कुलटा क्यों समझते हो!'
उसी समय केशवदत्त ने अंजलि को जगाकर उससे क्षमा माँगते हुए स्वप्न में हनुमानजी के दर्शन देने की सारी कहानी सुनाई। केशवदत्त ने अपने बेटे को हृदय से लगाकर बहुत प्यार किया। उस दिन के बाद सभी आनंदपूर्वक रहने लगे।
मंगलवार का विधिवत व्रत करने से केशवदत्त और उनके सभी कष्ट दूर हो गए। इस तरह जो स्त्री-पुरुष विधिवत मंगलवार का व्रत करके व्रतकथा सुनते हैं, हनुमानजी उनके सभी कष्ट दूर करके घर में धन-संपत्ति का भंडार भर देते हैं। शरीर के सभी रक्त विकार के रोग भी नष्ट हो जाते हैं।
ऋषिनगर में केशवदत्त ब्राह्मण अपनी पत्नी अंजलि के साथ रहता था। केशवदत्त के घर में धन-संपत्ति की कोई कमी नहीं थी। नगर में सभी केशवदत्त का सम्मान करते थे, लेकिन केशवदत्त संतान नहीं होने से बहुत चिंतित रहता था।
दोनों पति-पत्नी प्रति मंगलवार को मंदिर में जाकर हनुमानजी की पूजा करते थे। विधिवत मंगलवार का व्रत करते हुए कई वर्ष बीत गए। ब्राह्मण बहुत निराश हो गया, लेकिन उसने व्रत करना नहीं छोड़ा।
कुछ दिनों के बाद केशवदत्त हनुमानजी की पूजा करने के लिए जंगल में चला गया। उसकी पत्नी अंजलि घर में रहकर मंगलवार का व्रत करने लगी। दोनों पति-पत्नी पुत्र-प्राप्ति के लिए मंगलवार का विधिवत व्रत करने लगे। कुछ दिनों बाद अंजलि ने अगले मंगलवार को व्रत किया लेकिन किसी कारणवश उस दिन अंजलि हनुमानजी को भोग नहीं लगा सकी और उस दिन वह सूर्यास्त के बाद भूखी ही सो गई।
अगले मंगलवार को हनुमानजी को भोग लगाए बिना उसने भोजन नहीं करने का प्रण कर लिया। छः दिन तक अंजलि भूखी-प्यासी रही। सातवें दिन मंगलवार को अंजलि ने हनुमानजी की पूजा की, लेकिन तभी भूख-प्यास के कारण अंजलि बेहोश हो गई।
हनुमानजी ने उसे स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा- 'उठो पुत्री! मैं तुम्हारी पूजा-पाठ से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हें सुंदर और सुयोग्य पुत्र होने का वर देता हूँ।' यह कहकर हनुमानजी अंतर्धान हो गए। तत्काल अंजलि ने उठकर हनुमानजी को भोग लगाया और स्वयं भोजन किया।
हनुमानजी की अनुकम्पा से अंजलि ने एक सुंदर शिशु को जन्म दिया। मंगलवार को जन्म लेने के कारण उस बच्चे का नाम मंगलप्रसाद रखा गया। कुछ दिनों बाद अंजलि का पति केशवदत्त भी घर लौट आया। उसने मंगल को देखा तो अंजलि से पूछा- 'यह सुंदर बच्चा किसका है?' अंजलि ने खुश होते हुए हनुमानजी के दर्शन देने और पुत्र प्राप्त होने का वरदान देने की सारी कथा सुना दी। लेकिन केशवदत्त को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। उसके मन में पता नहीं कैसे यह कलुषित विचार आ गया कि अंजलि ने उसके साथ विश्वासघात किया है। अपने पापों को छिपाने के लिए अंजलि झूठ बोल रही है।
केशवदत्त ने उस बच्चे को मार डालने की योजना बनाई। एक दिन केशवदत स्नान के लिए कुएँ पर गया। मंगल भी उसके साथ था। केशवदत्त ने मौका देखकर मंगल को कुएँ में फेंक दिया और घर आकर बहाना बना दिया कि मंगल तो कुएँ पर मेरे पास पहुँचा ही नहीं। केशवदत्त के इतने कहने के ठीक बाद मंगल दौड़ता हुआ घर लौट आया।
केशवदत्त मंगल को देखकर बुरी तरह हैरान हो उठा। उसी रात हनुमानजी ने केशवदत्त को स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा- 'तुम दोनों के मंगलवार के व्रत करने से प्रसन्न होकर, पुत्रजन्म का वर मैंने दिया था। फिर तुम अपनी पत्नी को कुलटा क्यों समझते हो!'
उसी समय केशवदत्त ने अंजलि को जगाकर उससे क्षमा माँगते हुए स्वप्न में हनुमानजी के दर्शन देने की सारी कहानी सुनाई। केशवदत्त ने अपने बेटे को हृदय से लगाकर बहुत प्यार किया। उस दिन के बाद सभी आनंदपूर्वक रहने लगे।
मंगलवार का विधिवत व्रत करने से केशवदत्त और उनके सभी कष्ट दूर हो गए। इस तरह जो स्त्री-पुरुष विधिवत मंगलवार का व्रत करके व्रतकथा सुनते हैं, हनुमानजी उनके सभी कष्ट दूर करके घर में धन-संपत्ति का भंडार भर देते हैं। शरीर के सभी रक्त विकार के रोग भी नष्ट हो जाते हैं।
Shukarvar Vart Kath - Friday Fast Katha
Shukarvar Vart Kath - Friday Fast Katha and Arti
एक बुढ़िया थी और उसके सात पुत्र थे। छः कमाने वाले थे, एक निकम्मा था। बुढ़िया मां छहों पुत्रों की रसोई बनाती, भोजन कराती और पीछे से जो कुछ बचता सो सातवें को दे देती थी। परन्तु वह बड़ा भोला-भाला था, मन में कुछ विचार न करता था।
एक दिन अपनी बहू से बोला – देखो, मेरी माता का मुझ पर कितना प्यार है।
वह बोली – क्यों नही, सबका जूठा बचा हुआ तुमको खिलाती है।
वह बोला – भला ऐसा भई कहीं हो सकता है, मैं जब तक आँखों से न देखूं, मान नहीं सकता।
बहू ने हँसकर कहा – तुम देख लोगे तब तो मानोगे।
कुछ दिन बाद बड़ा त्यौहार आया। घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमा के लड़डू बने। वह जांचने को सिर-दर्द का बहाना कर पतला कपड़ा सिर पर ओढ़कर रसोई घर में सो गया और कपड़े में से सब देखता रहा। छहो भाई भोजन करने आय। उसने देखा माँ ने उनके लिये सुन्दर-सुन्दर आसन बिछाये है। सात प्रकार की रसोई परोसी है। वह आग्रह करके जिमाती है, वह देखता रहा। छहो भाई भोजन कर उठे तब माता ने उनकी जूठी थालियों में से लड़डुओं के टुकड़ों को उठाया और एक लड्डू बनाया।
जूठन साफ कर बुढ़िया माँ ने पुकारा – उठो बेटा, छहों भाई भोजन कर गये अब तू ही बाकी है, उठ न, कब खायेगा।
वह कहने लगा – माँ, मुझे भोजन नहीं करना। मैं परदेश जा रहा हूँ।
माता ने कहा – कल जाता हो तो आज ही जा।
वह बोला – हां-हां, आज ही जा रहा हूँ।
यह कहकर वह घर से निकल गया। चलते समय बहू की याद आई। वह गोशाला में उपलें थाप रही थी, वहीं जाकर उससे बोला –
हम जावें परदेश को आवेंगे कुछ काल ।
तुम रहियो संतोष से धरम आपनो पाल ।।
वह बोली जाओ पिया आनन्द से हमरुं सोच हटाय ।
राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय ।।
देख निशानी आपकी देख धरुँ मैं धीर ।
सुधि हमारी मति बिसारियो रखियो मन गंभीर ।।
वह बोला – मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे।
वह बोली – मेरे पास क्या है यह गोबर से भरा हाथ है। यह कहकर उसकी पीठ में गोबर के हाथ की थाप मार दी। वह चल दिया। चलते-चलते दूर देश में पहुँचा। वहाँ पर एक साहूकार की दुकान थी,
वहां जाकर कहने लगा – भाई मुझे नौकरी पर रख लो। साहूकार को जरुरत थी, बोला – रह जा। लड़के ने पूछा – तनखा क्या दोगे। साहूकार ने कहा – काम देखकर दाम मिलेंगे। साहूकार की नौकरी मिली। वह सवेरे सात बजे से रात तक नौकरी बजाने लगा। कुछ दिनों में दुकान का सारा लेने-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना, सारा काम करने लगा।
साहूकार ने 7-8 नौकर थे। वे सब चक्कर खाने लगे कि यह तो बहुत होशियार बन गया है। सेठ ने भी काम देखा और 3 महीने में उसे आधे मुनाफे का साझीदार बना लिया। वह 12 वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस पर छो़ड़कर बाहर चला गया। अब बहू पर क्या बीती सो सुनो । सास-ससुर उसे दुःख देने लगे। सारी गृहस्थी का काम करके उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते। इस बीच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल के खोपरे में पानी। इस तरह दिन बीतते रहे। एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी कि रास्ते में बहुत-सी स्त्रियाँ संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दीं।
वह वहाँ खड़ी हो कथा सुनकर बोली – बहिनों, यह तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने सेक्या फल ममिलता है। इस व्रत के करने की क्या विधि है। यदि तुम अपने व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी तो मैं तुम्हारा अहसान मानूंगी।
तब उनमें से एक स्त्री बोली – सुनो यह संतोषी माता का व्रत है, इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है और लक्ष्मी आती है। मन की चिंतायें दूर होती है। घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता और शांति मिलती है। निःपुत्र को पुत्र मिलता है, प्रीतम बाहर गया हो तो जल्दी आवे। क्वांरी कन्या को मनपसन्द वर मिले । राजद्घार में बहुत दिनों से मुकदमा चलता हो तो खत्म हो जावे, सब तरह सुख-शान्ति हो, घर में धन जमा हो, पैसा-जायदाद का लाभ हो, वे सब इस संतोषी माता की कृपा से पूरी हो जावे। इसमें संदेह नहीं। वह पूछने लगी- यह व्रत कैसे किया जावे यह भी बताओ तो बड़ी कृपा होगी।
स्त्री कहने लगी – सब रुपये का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पाँच रुपये का लेना या सवा ग्यारह रुपये का भी सहूलियत अनुसार लेना। बिना परेशानी, श्रद्घा, और प्रेम से जितना बन सके सवाया लेना। सवा रुपये से सवा पांच रुपये तथा इससे भी ज्यादा शक्ति और भक्ति के अनुसार लें। हर शुक्रवार को निराहार रह, कथा कहना – सुनना, इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करना। सुनने वाला कोई न मिले तो घी का दीपक जला, उसके आगे जल के पात्र को रख कथा कहना परन्तु नियम न टूटे। जब तक कार्य सिद्घ न हो, नियम पालन करना और कार्य सिद्घ हो जाने पर ही व्रत का उघापन करना। तीन मास में माता फल पूरा करती है। यदि किसी के खोटे ग्रह हो तो भी माता एक वर्ष में अवश्य कार्य को सिद्घ करती है। उघापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी परिमाण से खीर तथा चने का साग करना। इस दिन 8 लड़कों को भोजन करावे, देवर, जेठ, घर कुटुम्ब के लड़के मिलते हो तो दूसरों को बुलाना नहीं। कुटुम्ब में न मिले तो ब्राहमणों के, रिश्तेदारों या पड़ोसियों के लड़के बुलावे। उन्हें खटाई की कोई वस्तु न दें तथा भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देवें।
यह सुनकर बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी। रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना ले माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देख पूछने लगी – यह मंदिर किसका है।
सब कहने लगे – संतोषी माता का मंदिर है। यह सुन माता के मंदिर में जा माता के चरणों में लोटने लगी।
दीन होकर विनती करने लगी – माँ मैं निपट मूर्ख हूँ। व्रत के नियम कुछ नहीं जानती। मैं बहुत दुःखी हूँ। हे माता जगजननी । मेरा दुःख दूर कर, मैं तेरी शरण में हूँ। माता को दया आई। एक शुक्रवार बीता कि दूसरे शुक्रवार को ही इसके पति का पत्र आया और तीसरे को उसका भेजा हुआ पैसा भी आ पहुँचा।
यह देख जेठानी मुँह सिकोड़ने लगी – इतने दिनों में पैसा आया, इसमें क्या बड़ाई है।
लड़के ताने देने लगे – काकी के पास अब पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, अब तो काकी बुलाने से भी नहीं बोलेगी।
बेचारी सरलता से कहती – भैया, पत्र आवे, रुपया आवे तो हम सबके लिये अच्छा है। ऐसा कहकर आंखों में आँसू भरकर संतोषी माता के मन्दिर में आ मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी – माँ। मैनें तुमसे पैसा नहीं माँगा। मुझे पैसे से क्या काम है। मुझे तो आपने सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा मांगती हूँ।
तब माता ने प्रसन्न होकर कहा – जा बेटी, तेरा स्वामी आयेगा । यह सुन खुशी से बावली हो घर में जा काम करने लगी। अब संतोषी माँ विचार करने लगी, इस भोली पुत्री से मैंने कह तो दिया कि तेरा पति आयेगी, पर आयेगा कहाँ से ? वह तो स्वप्न में भी इसे याद नहीं करता। उसे याद दिलाने मुझे जाना पड़ेगा ।
इस तरह माता बुढ़िया के बेटे के पास जा स्वप्न मे प्रकट हो कहने लगी – साहूकार के बेटे सोता है या जागता है वह बोला - माता। सोता भी नहीं हूँ जागता भी नहीं हूँ, बीच में ही हूँ, कहो क्या आज्ञा है। माँ कहने लगी तेरा घर-बार कुछ है या नहीं ?
वह बोला – मेरा सब कुछ है माता। माँ, बाप, भाई-बहिन, बहू, क्या कमी है।
माँ बोली – भोले पुत्र तेरी स्त्री घोर कष्ट उठा रही है। माँ-बाप उसे दुःख दे रहे है, वह तेरे लिये तरस रही है, तू उसकी सुधि ले।
वह बोला – हाँ माता, यह तो मुझे मालूम है परन्तु मैं जाऊँ तो जाऊँ कैसे? परदेश की बात है । लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नजर नहीं आता, कैसे चला जाऊँ ।
माँ कहने लगी – मेरी बात मान, सवेरे नहा-धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला, दण्डवत् कर दुकान पर जाना । देखते-देखते तेरा लेन-देन सब चुक जायेगा । जमा माल बिक जायेगा, सांझ होते-होते धन का ढेर लग जायेगा। सवेरे बहुत जल्दी उठ उसने लोगों से अपने सपने की बात कही तो वे सब उसकी बात अनसुनी कर दिल्लगी उड़ाने लगे, कहीं सपने भी सच होते है क्या ?
एक बूढ़ा बोला – देख भाई मेरी बात मान, इस प्रकार सांच झूठ करनेके बदले देवता ने जैसा कहा है वैसा ही करने में तेरा क्या जाता है । वह बूढ़े की बात मान, स्नान कर संतोषी मां को दण्डवत कर घी का दीक जला, दुकान पर जा बैठा। थोड़ी देर में वह क्या देखता है कि सामानों के खरीददार नकद दाम में सौदा करने लगे। शाम तक धन का ढेर लग गया। माता का चमत्कार देख प्रसन्न हो मन में माता का नाम ले, घर ले जताने के वास्ते गहना, कपड़ा खरीदने लगा और वहाँ के काम से निपट कर घर को रवाना हुआ। वहाँ बहू बेचारी जंगल में लकड़ी लेने जाती है, लौटते वक्त मां के मन्दिर पर विश्राम करती है। वह तो उसका रोजाना रुकने का स्थान था।
दूर से धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है – हे माता। यह धूल कैसी उड़ रही है।
माँ कहती है – हे पुत्री। तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर, लकड़ियों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सिर पर रख। तेरे पति को लकड़ी का गट्ठा देखकर मोह पैदा होगा। वह वहाँ रुकेगा, नाश्ता-पानी बना-खाकर मां से मिलने जायेगा। तब तू लकड़ियों का बोझ उठाकर घर जाना और बीच चौक में गट्ठर डालकर तीन आवाजें जोर से लगाना – लो सासूजी - लकड़ियों का गट्ठा लो, भुसी की रोटी दो और नारियल के खोपरे में पानी दो, आज कौन मेहमान आया है। बहु ने कहा, "ठीक है, हाँ माँ!" और खुशी से लकड़ी से तीन गट्ठा बना दिया और माँ की आज्ञानुसार रख दिया फिर परिसर में लकड़ी की भारी गठरी रखते हुए, वह बाहर जोर से चिल्लाई , "माँ लो जी, लकड़ी की गठरी ले, मुझे भूसी रोटी दे, मुझे तोड़ नारियल पानी में खोल दे. आज कौन आया है?
माँ जी उसे कहती हैं, बेटी जी! तुम क्यों इस तरह क्या कहते हो सुन?
तेरा भगवान (पति) आ गया है, आओ मीठा चावल खाओ , कपड़े और गहने पहनो "इस बीच पति बाहर आता है और अँगूठी देख कर हैरान हो जाता है और पूछता है," माँ, यह कौन औरत है? माँ बोली कि ये तेरी बहु है, जब से तू गया है पूरा दिन गाव भर में डोलती है, 4 समय खाना खाती है पर आज तुझे देखकर भूसे की रोटी और खोपरे में पानी मांग रही है।
वह लज्जित हो बोला – ठीक है माँ। मैंनें इसे भी देखा हैऔर तुम्हें भी देखा है। अब मुझे दूसरे घर की ताली दो तो उसमें रहूं।
तब माँ बोली – ठीक है बेटा। तेरी जैसी मर्जी, कहकर ताली का गुच्छा पटक दिया। उसने ताली ले दूसरे कमरे में जो तीसरी मंजिल के ऊपर था, खोलकर सारा सामान जमाया। एक दिन में ही वहाँ राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया। अब क्या था, वे दोनों सुखपूर्वक रहने लगे । इतने में अगला शुक्रवार आया। बहू ने अपने पति से कहा कि मुझे माता का उघापन करना है ।
पति बोला – बहुत अच्छा, खुशी से करो। वह तुरन्त ही उघापन की तैयारी करने लगी । जेठ के लड़कों को भोजन के लिये कहने गई। उसने मंजूर किया परन्तु पीछे जेठनी अपने बच्चों को सिखलाती – देखो रे, भोजन के समय सब लोग खटाई मांगना, जिससे उसका उघापन पूरा न हो। लड़के जीमने गये, खीर पेट भरकर खाई। परन्तु याद आते ही कहने लगे – हमें कुछ खटाई दो, खीर खाना हमें भाता नहीं, देखकर अरुचि होती है।
बहू कहने लगी – खटाई किसी को नहीं दी जायेगी, यह तो संतोषी माता का प्रसाद है। लड़के तुरन्त उठ खड़े हुये, बोले पैसा लाओ। भोली बहू कुछ जानती नहीं थी सो उन्हें पैसे दे दिये। लड़के उसी समय जा करके इमली ला खाने लगे। यह देखकर बहू पर संतोषी माता जी ने कोप किया। राजा के दूत उसके पति को पकड़कर ले गये।
जेठ-जिठानी मनमाने खोटे वचन कहने लगे – लूट-लूटकर धन इकट्ठा कर लाया था सो राजा के दूत पकड़कर ले गये। अब सब मालूम पड़ जायेगा जब जेल की हवा खायेगा।बहू से यह वचन सहन नहीं हुए। रोती-रोती माता के मंदिर में गई। हे माता । तुमने यह क्या किया? हँसाकर अब क्यों रुलाने लगी?
माता बोली – पुत्री। तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है, इतनी जल्दी सब बातें भुला दीं। वह कहने लगी- माता भूली तो नहीं हूँ, न कुछ अपराध किया है। मुझे तो लड़कों ने भूल में डाल दिया। मैंने भूल से उन्हें पैसे दे दिये, मुझे क्षमा कर दो। माँ बोली ऐसी भी कहीं भूल होती है। वह बोली मां मुझे माफ कर दो, मैं फिर तुम्हारा उघापन करुंगी।
मां बोली – अब भूल मत करना।
वह बोली – अब न होगी, माँ अब बतलाओ वह कैसे आयेंगे?
माँ बोली – जा पुत्री, तेरा पति तुझे रास्ते में ही आता मिलेगा। वह घर को चली। राह में पति आता मिला।
उसने पूछा – तुम कहां गये थे?
तब वह कहने लगा – इतना धन कमाया है, उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वह भरने गया था।
वह प्रसन्न हो बोली – भला हुआ, अब घर चलो।
कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया। अगले शुक्रवार को उसने फिर विधिवत व्रत का उद्यापन किया। इससे संतोषी माँ प्रसन्न हुईं। नौमाह बाद चाँद-सा सुंदर पुत्र हुआ। पुत्र को लेकर प्रतिदिन माता जी के मन्दिर में जाने लगी। मां ने सोचा कि यह रोज आती है, आज क्यों न मैं ही इसके घर चलूं। इसका आसरा देखूं तो सही। यह विचार कर माता ने भयानक रुप बनाया। गुड़ और चने से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होंठ, उस पर मक्खियां भिन-भिना रहीं थी। देहलीज में पाँव रखते ही उसकी सास चिल्लाई – देखो रे, कोई चुड़ेल डाकिन चली आ रही है लड़कों इसे भगाओ, नहीं तो किसी को खा जायेगी ।लड़के डरने लगे और चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे। छोटी बहु रोशनदान में से देख रही थी, प्रसन्नता से पगली होकर चिल्लाने लगी "आज मेरी मात जी मेरे घर आई है"। यह कहकर बच्चे को दूध पिलाने से हटाती है। इतने में सास का क्रोध फूट पड़ा बोली रांड, इसे देखकर कैसी उतावली हुई है जो बच्चे को पकट दिया। इतने में माँ के प्रताप से जहाँ देखो वहीं लड़के ही लड़के नजर आने लगे।
वह बोली – माँ जी, मैं जिनका व्रत करती हूँ यह वही संतोषी माता है।
सबने माता के चरण पकड़ लिये और विनती कर कहने लगे – हे माता हम मूर्ख है, हम अज्ञानी है पापी है। तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते, तुम्हारा व्रत भंग कर हमने बहुत बड़ा अपराध किया है । आप हमारा अपराध क्षमा करो। इस प्रकार माता प्रसन्न हुई। माता ने बहु को जैसा फल दिया वैसा सबको दे। जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो।अब सास, बहू तथा बेटा माँ की कृपा से आनंद से रहने लगे।
आरती:
जय संतोषी माता मैया जय संतोषी माता |
अपने सेवक जन को सुख सम्पत्ति दाता ||
सुन्दर चीर सुनहरी माँ, धारण कीन्हों |
हीरा पन्ना दमके, तन श्रंगार लीन्हों ||
गेरु लाल घटा छवि, बदन कमल सोहे |
मन्द हँसत करुणामयी, त्रिभुवन मन मोहे ||
स्वर्ण सिंहासन बैठी, चँवर ढूरे प्यारे |
धुप, दीप, मधुमेवा, भोग धरे न्यारे ||
गुड़ अरु चना परम प्रिय, तामे संतोष कियो |
संतोषी कहलाई, भक्त्तन वैभव दियो ||
शुक्रवार प्रिय मानत, आज दिवस सोही |
भक्त्त मण्डली छाई, कथा सुनत मोही ||
मन्दिर जगमग ज्योति, मंगल ध्वनि छाई |
विनय करें हम बालक, चरनन सिर नाई ||
भक्त्ति भावमय पूजा अंगीकृत कीजै |
जो मन बसै हमारे, इच्छा फल दीजै ||
दुखी, दरिद्री, रोगी, संकट मुक्त किए |
बहु धन - धान्य भरे घर, सुख सौभाग्य दिए ||
ध्यान धर्यो जो नर तेरो, मनवांछित फल पायो |
पूजा कथा श्रवणकर, घर आंनद आयो ||
शरण गहे की लज्जा, राखियो जगदम्बे |
संकट तू ही निवारे, दयामयी अम्बे ||
संतोषी माँ की आरती, जो कोई नर गावे |
ऋद्धि - सिद्धि सुख - सम्पत्ति, जी भर के पावे ||
एक बुढ़िया थी और उसके सात पुत्र थे। छः कमाने वाले थे, एक निकम्मा था। बुढ़िया मां छहों पुत्रों की रसोई बनाती, भोजन कराती और पीछे से जो कुछ बचता सो सातवें को दे देती थी। परन्तु वह बड़ा भोला-भाला था, मन में कुछ विचार न करता था।
एक दिन अपनी बहू से बोला – देखो, मेरी माता का मुझ पर कितना प्यार है।
वह बोली – क्यों नही, सबका जूठा बचा हुआ तुमको खिलाती है।
वह बोला – भला ऐसा भई कहीं हो सकता है, मैं जब तक आँखों से न देखूं, मान नहीं सकता।
बहू ने हँसकर कहा – तुम देख लोगे तब तो मानोगे।
कुछ दिन बाद बड़ा त्यौहार आया। घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमा के लड़डू बने। वह जांचने को सिर-दर्द का बहाना कर पतला कपड़ा सिर पर ओढ़कर रसोई घर में सो गया और कपड़े में से सब देखता रहा। छहो भाई भोजन करने आय। उसने देखा माँ ने उनके लिये सुन्दर-सुन्दर आसन बिछाये है। सात प्रकार की रसोई परोसी है। वह आग्रह करके जिमाती है, वह देखता रहा। छहो भाई भोजन कर उठे तब माता ने उनकी जूठी थालियों में से लड़डुओं के टुकड़ों को उठाया और एक लड्डू बनाया।
जूठन साफ कर बुढ़िया माँ ने पुकारा – उठो बेटा, छहों भाई भोजन कर गये अब तू ही बाकी है, उठ न, कब खायेगा।
वह कहने लगा – माँ, मुझे भोजन नहीं करना। मैं परदेश जा रहा हूँ।
माता ने कहा – कल जाता हो तो आज ही जा।
वह बोला – हां-हां, आज ही जा रहा हूँ।
यह कहकर वह घर से निकल गया। चलते समय बहू की याद आई। वह गोशाला में उपलें थाप रही थी, वहीं जाकर उससे बोला –
हम जावें परदेश को आवेंगे कुछ काल ।
तुम रहियो संतोष से धरम आपनो पाल ।।
वह बोली जाओ पिया आनन्द से हमरुं सोच हटाय ।
राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय ।।
देख निशानी आपकी देख धरुँ मैं धीर ।
सुधि हमारी मति बिसारियो रखियो मन गंभीर ।।
वह बोला – मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे।
वह बोली – मेरे पास क्या है यह गोबर से भरा हाथ है। यह कहकर उसकी पीठ में गोबर के हाथ की थाप मार दी। वह चल दिया। चलते-चलते दूर देश में पहुँचा। वहाँ पर एक साहूकार की दुकान थी,
वहां जाकर कहने लगा – भाई मुझे नौकरी पर रख लो। साहूकार को जरुरत थी, बोला – रह जा। लड़के ने पूछा – तनखा क्या दोगे। साहूकार ने कहा – काम देखकर दाम मिलेंगे। साहूकार की नौकरी मिली। वह सवेरे सात बजे से रात तक नौकरी बजाने लगा। कुछ दिनों में दुकान का सारा लेने-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना, सारा काम करने लगा।
साहूकार ने 7-8 नौकर थे। वे सब चक्कर खाने लगे कि यह तो बहुत होशियार बन गया है। सेठ ने भी काम देखा और 3 महीने में उसे आधे मुनाफे का साझीदार बना लिया। वह 12 वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस पर छो़ड़कर बाहर चला गया। अब बहू पर क्या बीती सो सुनो । सास-ससुर उसे दुःख देने लगे। सारी गृहस्थी का काम करके उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते। इस बीच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल के खोपरे में पानी। इस तरह दिन बीतते रहे। एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी कि रास्ते में बहुत-सी स्त्रियाँ संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दीं।
वह वहाँ खड़ी हो कथा सुनकर बोली – बहिनों, यह तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने सेक्या फल ममिलता है। इस व्रत के करने की क्या विधि है। यदि तुम अपने व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी तो मैं तुम्हारा अहसान मानूंगी।
तब उनमें से एक स्त्री बोली – सुनो यह संतोषी माता का व्रत है, इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है और लक्ष्मी आती है। मन की चिंतायें दूर होती है। घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता और शांति मिलती है। निःपुत्र को पुत्र मिलता है, प्रीतम बाहर गया हो तो जल्दी आवे। क्वांरी कन्या को मनपसन्द वर मिले । राजद्घार में बहुत दिनों से मुकदमा चलता हो तो खत्म हो जावे, सब तरह सुख-शान्ति हो, घर में धन जमा हो, पैसा-जायदाद का लाभ हो, वे सब इस संतोषी माता की कृपा से पूरी हो जावे। इसमें संदेह नहीं। वह पूछने लगी- यह व्रत कैसे किया जावे यह भी बताओ तो बड़ी कृपा होगी।
स्त्री कहने लगी – सब रुपये का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पाँच रुपये का लेना या सवा ग्यारह रुपये का भी सहूलियत अनुसार लेना। बिना परेशानी, श्रद्घा, और प्रेम से जितना बन सके सवाया लेना। सवा रुपये से सवा पांच रुपये तथा इससे भी ज्यादा शक्ति और भक्ति के अनुसार लें। हर शुक्रवार को निराहार रह, कथा कहना – सुनना, इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करना। सुनने वाला कोई न मिले तो घी का दीपक जला, उसके आगे जल के पात्र को रख कथा कहना परन्तु नियम न टूटे। जब तक कार्य सिद्घ न हो, नियम पालन करना और कार्य सिद्घ हो जाने पर ही व्रत का उघापन करना। तीन मास में माता फल पूरा करती है। यदि किसी के खोटे ग्रह हो तो भी माता एक वर्ष में अवश्य कार्य को सिद्घ करती है। उघापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी परिमाण से खीर तथा चने का साग करना। इस दिन 8 लड़कों को भोजन करावे, देवर, जेठ, घर कुटुम्ब के लड़के मिलते हो तो दूसरों को बुलाना नहीं। कुटुम्ब में न मिले तो ब्राहमणों के, रिश्तेदारों या पड़ोसियों के लड़के बुलावे। उन्हें खटाई की कोई वस्तु न दें तथा भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देवें।
यह सुनकर बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी। रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना ले माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देख पूछने लगी – यह मंदिर किसका है।
सब कहने लगे – संतोषी माता का मंदिर है। यह सुन माता के मंदिर में जा माता के चरणों में लोटने लगी।
दीन होकर विनती करने लगी – माँ मैं निपट मूर्ख हूँ। व्रत के नियम कुछ नहीं जानती। मैं बहुत दुःखी हूँ। हे माता जगजननी । मेरा दुःख दूर कर, मैं तेरी शरण में हूँ। माता को दया आई। एक शुक्रवार बीता कि दूसरे शुक्रवार को ही इसके पति का पत्र आया और तीसरे को उसका भेजा हुआ पैसा भी आ पहुँचा।
यह देख जेठानी मुँह सिकोड़ने लगी – इतने दिनों में पैसा आया, इसमें क्या बड़ाई है।
लड़के ताने देने लगे – काकी के पास अब पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, अब तो काकी बुलाने से भी नहीं बोलेगी।
बेचारी सरलता से कहती – भैया, पत्र आवे, रुपया आवे तो हम सबके लिये अच्छा है। ऐसा कहकर आंखों में आँसू भरकर संतोषी माता के मन्दिर में आ मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी – माँ। मैनें तुमसे पैसा नहीं माँगा। मुझे पैसे से क्या काम है। मुझे तो आपने सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा मांगती हूँ।
तब माता ने प्रसन्न होकर कहा – जा बेटी, तेरा स्वामी आयेगा । यह सुन खुशी से बावली हो घर में जा काम करने लगी। अब संतोषी माँ विचार करने लगी, इस भोली पुत्री से मैंने कह तो दिया कि तेरा पति आयेगी, पर आयेगा कहाँ से ? वह तो स्वप्न में भी इसे याद नहीं करता। उसे याद दिलाने मुझे जाना पड़ेगा ।
इस तरह माता बुढ़िया के बेटे के पास जा स्वप्न मे प्रकट हो कहने लगी – साहूकार के बेटे सोता है या जागता है वह बोला - माता। सोता भी नहीं हूँ जागता भी नहीं हूँ, बीच में ही हूँ, कहो क्या आज्ञा है। माँ कहने लगी तेरा घर-बार कुछ है या नहीं ?
वह बोला – मेरा सब कुछ है माता। माँ, बाप, भाई-बहिन, बहू, क्या कमी है।
माँ बोली – भोले पुत्र तेरी स्त्री घोर कष्ट उठा रही है। माँ-बाप उसे दुःख दे रहे है, वह तेरे लिये तरस रही है, तू उसकी सुधि ले।
वह बोला – हाँ माता, यह तो मुझे मालूम है परन्तु मैं जाऊँ तो जाऊँ कैसे? परदेश की बात है । लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नजर नहीं आता, कैसे चला जाऊँ ।
माँ कहने लगी – मेरी बात मान, सवेरे नहा-धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला, दण्डवत् कर दुकान पर जाना । देखते-देखते तेरा लेन-देन सब चुक जायेगा । जमा माल बिक जायेगा, सांझ होते-होते धन का ढेर लग जायेगा। सवेरे बहुत जल्दी उठ उसने लोगों से अपने सपने की बात कही तो वे सब उसकी बात अनसुनी कर दिल्लगी उड़ाने लगे, कहीं सपने भी सच होते है क्या ?
एक बूढ़ा बोला – देख भाई मेरी बात मान, इस प्रकार सांच झूठ करनेके बदले देवता ने जैसा कहा है वैसा ही करने में तेरा क्या जाता है । वह बूढ़े की बात मान, स्नान कर संतोषी मां को दण्डवत कर घी का दीक जला, दुकान पर जा बैठा। थोड़ी देर में वह क्या देखता है कि सामानों के खरीददार नकद दाम में सौदा करने लगे। शाम तक धन का ढेर लग गया। माता का चमत्कार देख प्रसन्न हो मन में माता का नाम ले, घर ले जताने के वास्ते गहना, कपड़ा खरीदने लगा और वहाँ के काम से निपट कर घर को रवाना हुआ। वहाँ बहू बेचारी जंगल में लकड़ी लेने जाती है, लौटते वक्त मां के मन्दिर पर विश्राम करती है। वह तो उसका रोजाना रुकने का स्थान था।
दूर से धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है – हे माता। यह धूल कैसी उड़ रही है।
माँ कहती है – हे पुत्री। तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर, लकड़ियों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सिर पर रख। तेरे पति को लकड़ी का गट्ठा देखकर मोह पैदा होगा। वह वहाँ रुकेगा, नाश्ता-पानी बना-खाकर मां से मिलने जायेगा। तब तू लकड़ियों का बोझ उठाकर घर जाना और बीच चौक में गट्ठर डालकर तीन आवाजें जोर से लगाना – लो सासूजी - लकड़ियों का गट्ठा लो, भुसी की रोटी दो और नारियल के खोपरे में पानी दो, आज कौन मेहमान आया है। बहु ने कहा, "ठीक है, हाँ माँ!" और खुशी से लकड़ी से तीन गट्ठा बना दिया और माँ की आज्ञानुसार रख दिया फिर परिसर में लकड़ी की भारी गठरी रखते हुए, वह बाहर जोर से चिल्लाई , "माँ लो जी, लकड़ी की गठरी ले, मुझे भूसी रोटी दे, मुझे तोड़ नारियल पानी में खोल दे. आज कौन आया है?
माँ जी उसे कहती हैं, बेटी जी! तुम क्यों इस तरह क्या कहते हो सुन?
तेरा भगवान (पति) आ गया है, आओ मीठा चावल खाओ , कपड़े और गहने पहनो "इस बीच पति बाहर आता है और अँगूठी देख कर हैरान हो जाता है और पूछता है," माँ, यह कौन औरत है? माँ बोली कि ये तेरी बहु है, जब से तू गया है पूरा दिन गाव भर में डोलती है, 4 समय खाना खाती है पर आज तुझे देखकर भूसे की रोटी और खोपरे में पानी मांग रही है।
वह लज्जित हो बोला – ठीक है माँ। मैंनें इसे भी देखा हैऔर तुम्हें भी देखा है। अब मुझे दूसरे घर की ताली दो तो उसमें रहूं।
तब माँ बोली – ठीक है बेटा। तेरी जैसी मर्जी, कहकर ताली का गुच्छा पटक दिया। उसने ताली ले दूसरे कमरे में जो तीसरी मंजिल के ऊपर था, खोलकर सारा सामान जमाया। एक दिन में ही वहाँ राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया। अब क्या था, वे दोनों सुखपूर्वक रहने लगे । इतने में अगला शुक्रवार आया। बहू ने अपने पति से कहा कि मुझे माता का उघापन करना है ।
पति बोला – बहुत अच्छा, खुशी से करो। वह तुरन्त ही उघापन की तैयारी करने लगी । जेठ के लड़कों को भोजन के लिये कहने गई। उसने मंजूर किया परन्तु पीछे जेठनी अपने बच्चों को सिखलाती – देखो रे, भोजन के समय सब लोग खटाई मांगना, जिससे उसका उघापन पूरा न हो। लड़के जीमने गये, खीर पेट भरकर खाई। परन्तु याद आते ही कहने लगे – हमें कुछ खटाई दो, खीर खाना हमें भाता नहीं, देखकर अरुचि होती है।
बहू कहने लगी – खटाई किसी को नहीं दी जायेगी, यह तो संतोषी माता का प्रसाद है। लड़के तुरन्त उठ खड़े हुये, बोले पैसा लाओ। भोली बहू कुछ जानती नहीं थी सो उन्हें पैसे दे दिये। लड़के उसी समय जा करके इमली ला खाने लगे। यह देखकर बहू पर संतोषी माता जी ने कोप किया। राजा के दूत उसके पति को पकड़कर ले गये।
जेठ-जिठानी मनमाने खोटे वचन कहने लगे – लूट-लूटकर धन इकट्ठा कर लाया था सो राजा के दूत पकड़कर ले गये। अब सब मालूम पड़ जायेगा जब जेल की हवा खायेगा।बहू से यह वचन सहन नहीं हुए। रोती-रोती माता के मंदिर में गई। हे माता । तुमने यह क्या किया? हँसाकर अब क्यों रुलाने लगी?
माता बोली – पुत्री। तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है, इतनी जल्दी सब बातें भुला दीं। वह कहने लगी- माता भूली तो नहीं हूँ, न कुछ अपराध किया है। मुझे तो लड़कों ने भूल में डाल दिया। मैंने भूल से उन्हें पैसे दे दिये, मुझे क्षमा कर दो। माँ बोली ऐसी भी कहीं भूल होती है। वह बोली मां मुझे माफ कर दो, मैं फिर तुम्हारा उघापन करुंगी।
मां बोली – अब भूल मत करना।
वह बोली – अब न होगी, माँ अब बतलाओ वह कैसे आयेंगे?
माँ बोली – जा पुत्री, तेरा पति तुझे रास्ते में ही आता मिलेगा। वह घर को चली। राह में पति आता मिला।
उसने पूछा – तुम कहां गये थे?
तब वह कहने लगा – इतना धन कमाया है, उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वह भरने गया था।
वह प्रसन्न हो बोली – भला हुआ, अब घर चलो।
कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया। अगले शुक्रवार को उसने फिर विधिवत व्रत का उद्यापन किया। इससे संतोषी माँ प्रसन्न हुईं। नौमाह बाद चाँद-सा सुंदर पुत्र हुआ। पुत्र को लेकर प्रतिदिन माता जी के मन्दिर में जाने लगी। मां ने सोचा कि यह रोज आती है, आज क्यों न मैं ही इसके घर चलूं। इसका आसरा देखूं तो सही। यह विचार कर माता ने भयानक रुप बनाया। गुड़ और चने से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होंठ, उस पर मक्खियां भिन-भिना रहीं थी। देहलीज में पाँव रखते ही उसकी सास चिल्लाई – देखो रे, कोई चुड़ेल डाकिन चली आ रही है लड़कों इसे भगाओ, नहीं तो किसी को खा जायेगी ।लड़के डरने लगे और चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे। छोटी बहु रोशनदान में से देख रही थी, प्रसन्नता से पगली होकर चिल्लाने लगी "आज मेरी मात जी मेरे घर आई है"। यह कहकर बच्चे को दूध पिलाने से हटाती है। इतने में सास का क्रोध फूट पड़ा बोली रांड, इसे देखकर कैसी उतावली हुई है जो बच्चे को पकट दिया। इतने में माँ के प्रताप से जहाँ देखो वहीं लड़के ही लड़के नजर आने लगे।
वह बोली – माँ जी, मैं जिनका व्रत करती हूँ यह वही संतोषी माता है।
सबने माता के चरण पकड़ लिये और विनती कर कहने लगे – हे माता हम मूर्ख है, हम अज्ञानी है पापी है। तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते, तुम्हारा व्रत भंग कर हमने बहुत बड़ा अपराध किया है । आप हमारा अपराध क्षमा करो। इस प्रकार माता प्रसन्न हुई। माता ने बहु को जैसा फल दिया वैसा सबको दे। जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो।अब सास, बहू तथा बेटा माँ की कृपा से आनंद से रहने लगे।
आरती:
जय संतोषी माता मैया जय संतोषी माता |
अपने सेवक जन को सुख सम्पत्ति दाता ||
सुन्दर चीर सुनहरी माँ, धारण कीन्हों |
हीरा पन्ना दमके, तन श्रंगार लीन्हों ||
गेरु लाल घटा छवि, बदन कमल सोहे |
मन्द हँसत करुणामयी, त्रिभुवन मन मोहे ||
स्वर्ण सिंहासन बैठी, चँवर ढूरे प्यारे |
धुप, दीप, मधुमेवा, भोग धरे न्यारे ||
गुड़ अरु चना परम प्रिय, तामे संतोष कियो |
संतोषी कहलाई, भक्त्तन वैभव दियो ||
शुक्रवार प्रिय मानत, आज दिवस सोही |
भक्त्त मण्डली छाई, कथा सुनत मोही ||
मन्दिर जगमग ज्योति, मंगल ध्वनि छाई |
विनय करें हम बालक, चरनन सिर नाई ||
भक्त्ति भावमय पूजा अंगीकृत कीजै |
जो मन बसै हमारे, इच्छा फल दीजै ||
दुखी, दरिद्री, रोगी, संकट मुक्त किए |
बहु धन - धान्य भरे घर, सुख सौभाग्य दिए ||
ध्यान धर्यो जो नर तेरो, मनवांछित फल पायो |
पूजा कथा श्रवणकर, घर आंनद आयो ||
शरण गहे की लज्जा, राखियो जगदम्बे |
संकट तू ही निवारे, दयामयी अम्बे ||
संतोषी माँ की आरती, जो कोई नर गावे |
ऋद्धि - सिद्धि सुख - सम्पत्ति, जी भर के पावे ||
Shanivar Vart Kath -Saturday Fast Kath and Arti
Shanivar Vart Kath - Saturday Fast Kath and Arti
एक समय स्वर्गलोक में 'सबसे बड़ा कौन?' के प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि परस्पर भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई। निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुँचे और बोले- 'हे देवराज! आपको निर्णय करना होगा कि हममें से सबसे बड़ा कौन है?' देवताओं का प्रश्न सुनकर देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए।
इंद्र बोले- 'मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। हम सभी पृथ्वीलोक में उज्जयिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं।
देवराज इंद्र सहित सभी ग्रह (देवता) उज्जयिनी नगरी पहुँचे। महल में पहुँचकर जब देवताओं ने उनसे अपना प्रश्न पूछा तो राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान थे। किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुँच सकती थी।
अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- स्वर्ण, रजत (चाँदी), कांसा, ताम्र (तांबा), सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाए। धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवाकर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा।
देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा- 'आपका निर्णय तो स्वयं हो गया। जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वहीं सबसे बड़ा है।'
राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा- 'राजा विक्रमादित्य! तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो। मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूँगा।'
शनि ने कहा- 'सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष (साढ़े साती) तक रहता हूँ। बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है।
राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाकर रहना पड़ा और रावण को साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा। राजा! अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा।'
इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परंतु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहाँ से विदा हुए।
राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे। उनके राज्य में सभी स्त्री-पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे। कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। उधर शनि देवता अपने अपमान को भूले नहीं थे।
विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्जयिनी नगरी पहुँचे। राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा।.
घोड़े बहुत कीमती थे। अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा विक्रमादित्य ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोड़े को पसंद किया।
घोड़े की चाल देखने के लिए राजा उस घोड़े पर सवार हुए तो वह घोड़ा बिजली की गति से दौड़ पड़ा।
तेजी से दौड़ता घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर राजा को वहाँ गिराकर जंगल में कहीं गायब हो गया। राजा अपने नगर को लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा। लेकिन उन्हें
लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख-प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला।
राजा ने उससे पानी माँगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अँगूठी दे दी। फिर उससे रास्ता पूछकर वह जंगल से निकलकर पास के नगर में पहुँचा।
राजा ने एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया। उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्जयिनी नगरी से आया हूँ। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई।
सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा और खुश होकर उसे अपने घर भोजन के लिए ले गया। सेठ के घर में सोने का एक हार खूँटी पर लटका हुआ था। राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर गया।
तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूँटी निगल गई।
सेठ ने कमरे में लौटकर हार को गायब देखा तो चोरी का संदेह राजा पर ही किया क्योंकि उस कमरे में राजा ही अकेला बैठा था। सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि इस परदेसी को रस्सियों से बाँधकर नगर के राजा के पास ले चलो। राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके देखते ही देखते खूँटी ने हार को निगल लिया था। इस पर राजा ने क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटने का आदेश दे दिया। राजा विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया।
कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हाँकता रहता। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई।
राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लड़की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी। उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा।
दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई। अतः उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया।
राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वे हैरान रह गए। रानी ने मोहिनी को समझाया- 'बेटी! तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है। फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पाँव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रही है?'
राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड़ दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया।
आखिर राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा। विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा- 'राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया।
मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है।' राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- 'हे शनिदेव! आपने जितना दुःख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना।'
शनिदेव ने कुछ सोचकर कहा- 'राजा! मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ। जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत करके मेरी व्रतकथा सुनेगा, उस पर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी।
प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पाँव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उसने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पाँव सही-सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई।
तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई।
सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुँचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा। राजा ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था।
सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहाँ एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूँटी ने हार उगल दिया। सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया।
राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्जयिनी पहुँचे तो नगरवासियों ने हर्ष से उनका स्वागत किया। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रतकथा अवश्य सुनें।
राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएँ शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगीं। सभी लोग आनंदपूर्वक रहने लगे।
एक समय स्वर्गलोक में 'सबसे बड़ा कौन?' के प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि परस्पर भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई। निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुँचे और बोले- 'हे देवराज! आपको निर्णय करना होगा कि हममें से सबसे बड़ा कौन है?' देवताओं का प्रश्न सुनकर देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए।
इंद्र बोले- 'मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। हम सभी पृथ्वीलोक में उज्जयिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं।
देवराज इंद्र सहित सभी ग्रह (देवता) उज्जयिनी नगरी पहुँचे। महल में पहुँचकर जब देवताओं ने उनसे अपना प्रश्न पूछा तो राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान थे। किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुँच सकती थी।
अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- स्वर्ण, रजत (चाँदी), कांसा, ताम्र (तांबा), सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाए। धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवाकर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा।
देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा- 'आपका निर्णय तो स्वयं हो गया। जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वहीं सबसे बड़ा है।'
राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा- 'राजा विक्रमादित्य! तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो। मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूँगा।'
शनि ने कहा- 'सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष (साढ़े साती) तक रहता हूँ। बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है।
राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाकर रहना पड़ा और रावण को साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा। राजा! अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा।'
इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परंतु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहाँ से विदा हुए।
राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे। उनके राज्य में सभी स्त्री-पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे। कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। उधर शनि देवता अपने अपमान को भूले नहीं थे।
विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्जयिनी नगरी पहुँचे। राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा।.
घोड़े बहुत कीमती थे। अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा विक्रमादित्य ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोड़े को पसंद किया।
घोड़े की चाल देखने के लिए राजा उस घोड़े पर सवार हुए तो वह घोड़ा बिजली की गति से दौड़ पड़ा।
तेजी से दौड़ता घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर राजा को वहाँ गिराकर जंगल में कहीं गायब हो गया। राजा अपने नगर को लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा। लेकिन उन्हें
लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख-प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला।
राजा ने उससे पानी माँगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अँगूठी दे दी। फिर उससे रास्ता पूछकर वह जंगल से निकलकर पास के नगर में पहुँचा।
राजा ने एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया। उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्जयिनी नगरी से आया हूँ। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई।
सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा और खुश होकर उसे अपने घर भोजन के लिए ले गया। सेठ के घर में सोने का एक हार खूँटी पर लटका हुआ था। राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर गया।
तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूँटी निगल गई।
सेठ ने कमरे में लौटकर हार को गायब देखा तो चोरी का संदेह राजा पर ही किया क्योंकि उस कमरे में राजा ही अकेला बैठा था। सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि इस परदेसी को रस्सियों से बाँधकर नगर के राजा के पास ले चलो। राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके देखते ही देखते खूँटी ने हार को निगल लिया था। इस पर राजा ने क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटने का आदेश दे दिया। राजा विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया।
कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हाँकता रहता। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई।
राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लड़की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी। उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा।
दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई। अतः उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया।
राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वे हैरान रह गए। रानी ने मोहिनी को समझाया- 'बेटी! तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है। फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पाँव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रही है?'
राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड़ दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया।
आखिर राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा। विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा- 'राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया।
मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है।' राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- 'हे शनिदेव! आपने जितना दुःख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना।'
शनिदेव ने कुछ सोचकर कहा- 'राजा! मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ। जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत करके मेरी व्रतकथा सुनेगा, उस पर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी।
प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पाँव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उसने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पाँव सही-सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई।
तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई।
सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुँचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा। राजा ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था।
सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहाँ एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूँटी ने हार उगल दिया। सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया।
राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्जयिनी पहुँचे तो नगरवासियों ने हर्ष से उनका स्वागत किया। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रतकथा अवश्य सुनें।
राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएँ शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगीं। सभी लोग आनंदपूर्वक रहने लगे।
Patthar Ki Radha Pyari Patthar Ke Krishna Murari Bhajan - Devki Nandan Thakur Ji Maharaj
Devki Nandan Thakur Ji Maharaj - Patthar Ki Radha Pyari Patthar Ke Krishna Murari Bhajan
Tuesday, 4 February 2014
Sai Baba Different Name - 108 Name of Shri Sai baba - Sai baba Namevali
108 Name of Shri Sai baba - Sai baba Namevali
- OM sri Sai Nathaaya namaha
- OM Sri Sai Lakshmi naarayanaya namaha
- OM Sri Sai Krishnaraamashiva maruthyaadhi roopaaya namaha
- OM Sri Sai Seshasai ne namaha
- OM Sri Sai Godhavarithata shirdhivasi ne namaha
- OM Sri Sai Bhakta hrudaalayaaya namaha
- OM Sri Sai Sarva hrunnilayaaya namaha
- OMSri Sai Bhoota vaasaya namaha
- OM Sri Sai Bhootha bhavishyadbhaava varnithaaya namaha
- OM Sri Sai Kaalaa thiithaaya namaha
- OM Sri Sai Kaalaaya namaha
- OM Sri Sai Kaala kaalaaya namaha
- OM Sri Sai Kaaladarpa damanaaya namaha
- OM Sri Sai Mrutyunjayaaya namaha
- OM Sri Sai Amarthyaaya namaha
- OM Sri Sai Marthyaa bhayapradhaaya namaha
- OM Sri Sai Jiivadhaaraaya namaha
- OM Sri Sai Sarvadhaaraaya namaha
- OM Sri Sai Bhaktaavana samarthaaya namaha
- OM Sri Sai Bhaktavana prathikjnaaya namaha
- OM Sri Sai Anna vastra daaya namaha
- OM Sri Sai Aroogya ksheemadaaya namaha
- OM Sri Sai Dhana maangalyapradaaya namaha
- OM Sri Sai Buddhi siddhi pradaaya namaha
- OM Sri Sai Putra mitra kalathra bandhudaaya namaha
- OM Sri Sai Yogaksheema vahaaya namaha
- OM Sri Sai Aapadbhaandhavaaya namaha
- OM Sri Sai Maargabandhavee namaha
- OM Sri Sai Bhukti mukti swargaapavargadaaya namaha
- OM Sri Sai Priyaaya namaha
- OM Sri Sai Preeti vardhanaaya namaha
- OM Sri Sai Antharyaminee namaha
- OM Sri Sai Sacchitatmanee namaha
- OM Sri Sai Nityanandaaya namaha
- OM Sri Sai Parama sukhadaaya namaha
- OM Sri Sai Parameeshwaraaya namaha
- OM Sri Sai Parabrahmanee namaha
- OM Sri Sai Paramaatmanee namaha
- OM Sri Sai Gnaana Swaroopinee namaha
- OM Sri Sai Jagath pithre namaha
- OM Sri Sai Bhaktaanaam maathru daathru pithaamahaaya namaha
- OM Sri Sai Bhaktaabhaya pradhaaya namaha
- OM Sri Sai Bhakta para dheenaya namaha
- OM Sri Sai Bhaktaanugraha karaaya namaha
- OM Sri Sai Sharaanagatha vatsalaaya namaha
- OM Sri Sai Bhakti shakti pradaaya namaha
- OM Sri Sai Gnana yraaghya prdaaya namaha
- OM Sri Sai Preema pradaaya namaha
- OM Sri Sai Samskhaya hrudaya dowurbhalya paapa karma vaasanaa kshayakaraaya namaha
- OM Sri Sai Hrudayagranthi bheedakaaya namaha
- OM Sri Sai Karma dhvamsiinee namaha
- OM Sri Sai Suddasathva sthithaaya namaha
- OM Sri Sai Gunaatheetha gunaathmanee namaha
- OM Sri Sai Anantha kalyaana gunaaya namaha
- OM Sri Sai Amitha parakramaaya namaha
- OM Sri Sai Jayinee namaha
- OM Sri Sai Durdhaarshaa kshobyaaya namaha
- OM Sri Sai Aparaajitaya namaha
- OM Sri Sai Trilookeeshu avighaatha gatayee namaha
- OM Sri Sai Ashakya rahitaaya namaha
- OM Sri Sai Sarva shakti murthayee namaha
- OM Sri Sai Suroopa sundaraaya namaha
- OM Sri Sai Suloochanaaya namaha
- OM Sri Sai Bahuroopa vishwamuurthayee namaha
- OM Sri Sai Aroopaavyaktaaya namaha
- OM Sri Sai Aachintyaaya namaha
- OM Sri Sai Sookshmaaya namaha
- OM Sri Sai Sarvaantharyaminee namaha
- OM Sri Sai Manoovaaga theethaya namaha
- OM Sri Sai Preemamoorthayee namaha
- OM Sri Sai Sulabha durlabhaaya namaha
- OM Sri Sai Asahaaya sahaayaaya namaha
- OM Sri Sai Anaatha naatha deenabaandhavee namaha
- OM Sri Sai Sarvabhaara bhrutee namaha
- OM Sri Sai Akarmaaneeka karma sukarminee namaha
- OM Sri Sai Punyasravana keerthanaaya namaha
- OM Sri Sai Theerthaaya namaha
- OM Sri Sai Vasudeevaaya namaha
- OM Sri Sai Sataamgathayee namaha
- OM Sri Sai Satyanaaraayanaaya namaha
- OM Sri Sai Lokanaathaaya namaha
- OM Sri Sai Paavananaaghaaya namaha
- OM Sri Sai Amruthamsavee namaha
- OM Sri Sai Bhaaskara Prabhaaya namaha
- OM Sri Sai Bramhacharya tapascharyaadi suvrathaaya namaha
- M Sri Sai Satyadharma paraayanaaya namaha
- OM Sri Sai Siddheshvaraaya namaha
- OM Sri Sai Siddha sankalpaaya namaha
- OM Sri Sai Yogeshwaraaya namaha
- OM Sri Sai Bhagwatee namaha
- OM Sri Sai Bhakta vatsalaaya namaha
- OM Sri Sai Sathpurushaaya namaha
- OM Sri Sai Purushootthamaaya namaha
- OM Sri Sai Satyatatva boodhakaaya namaha
- OM Sri Sai Kaamaadi shadyri dwamsinee namaha
- OM Sri Sai Abheedaanandaama bhava pradhaaya namaha
- OM Sri Sai Samasarvamatha sammataaya namaha
- OM Sri Sai Sri Dakshinaa moorthiyee namaha
- OM Sri Sai Sri Venkateesha ramanaaya namaha
- OM Sri Sai Adbhuthaanantha charyaaya namaha
- OM Sri Sai Prapannarthi haraaya namaha
- OM Sri Sai Samsaara sarva dukha kshayakaraaya namaha
- OM Sri Sai Sarva vitsarvato mukhaaya namaha
- OM Sri Sai Sarvaantharbhahi stitaaya namaha
- OM Sri Sai Sarvamangala karaaya namaha
- OM Sri Sai Sarvaabhiishta pradhaaya namaha
- OM Sri Sai Samaras sanmaarga sthaapanaaya namaha
- OM Sri Sai samartha sadguru Sri Sai nathaaya namaha
Monday, 3 February 2014
Om Sai Chalisa In Hindi
पहले साई के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं।
कैसे शिरडी साई आए, सारा हाल सुनाऊं मैं॥
कौन है माता, पिता कौन है, ये न किसी ने भी जाना।
कहां जन्म साई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना॥
कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं।
कोई कहता साई बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं॥
कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानंद हैं साई।
कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साई॥
शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।
कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साई की करते॥
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साई हैं सच्चे भगवान।
बड़े दयालु दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवन दान॥
कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात।
किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात॥
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।
आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर॥
कई दिनों तक भटकता, भिक्षा माँग उसने दर-दर।
और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर॥
जैसे-जैसे अमर उमर बढ़ी, बढ़ती ही वैसे गई शान।
घर-घर होने लगा नगर में, साई बाबा का गुणगान ॥10॥
दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम।
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम॥
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन॥
कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान।
एवं अस्तु तब कहकर साई, देते थे उसको वरदान॥
स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल।
अन्तःकरण श्री साई का, सागर जैसा रहा विशाल॥
भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत ब़ड़ा धनवान।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान॥
लगा मनाने साईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो॥
कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ घर में मेरे।
इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे॥
कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया॥
दे दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर।
और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर॥
अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने , दिया भक्त को यह आशीश ॥20॥
'अल्ला भला करेगा तेरा' पुत्र जन्म हो तेरे घर।
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर॥
अब तक नहीं किसी ने पाया, साई की कृपा का पार।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार॥
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।
सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार॥
मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।
साई जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस॥
मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी।
तन पर कप़ड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी॥
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था।
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था॥
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था॥
ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साई का था।
जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था॥
बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।
साई जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार॥
पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूरति।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साई की सूरति ॥30॥
जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया।
संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अन्त हो गया॥
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से।
प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साई की आभा से॥
बाबा ने सन्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।
इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में॥
साई की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।
लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ॥
'काशीराम' बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था।
मैं साई का साई मेरा, वह दुनिया से कहता था॥
सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में।
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साई की झंकारों में॥
स्तब्ध निशा थी, थे सोय, रजनी आंचल में चाँद सितारे।
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे॥
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय ! हाट से काशी।
विचित्र ब़ड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी॥
घेर राह में ख़ड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।
मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि प़ड़ी सुनाई॥
लूट पीटकर उसे वहाँ से कुटिल गए चम्पत हो।
आघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो ॥40॥
बहुत देर तक प़ड़ा रह वह, वहीं उसी हालत में।
जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में॥
अनजाने ही उसके मुंह से, निकल प़ड़ा था साई।
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को प़ड़ी सुनाई॥
क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो॥
उन्मादी से इ़धर-उ़धर तब, बाबा लेगे भटकने।
सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने॥
और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला।
हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला॥
समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त प़ड़ा संकट में।
क्षुभित ख़ड़े थे सभी वहाँ, पर प़ड़े हुए विस्मय में॥
उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है।
उसकी ही पी़ड़ा से पीडित, उनकी अन्तःस्थल है॥
इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई।
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई॥
लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गा़ड़ी एक वहाँ आई।
सन्मुख अपने देख भक्त को, साई की आंखें भर आई॥
शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा, बाबा का अन्तःस्थल।
आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल ॥50॥
आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी।
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी॥
आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।
उसके ही दर्शन की खातिर थे, उम़ड़े नगर-निवासी॥
जब भी और जहां भी कोई, भक्त प़ड़े संकट में।
उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में॥
युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।
आपतग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी॥
भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साई।
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई॥
भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।
राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला॥
घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना।
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना॥
चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।
और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी॥
सब को स्नेह दिया साई ने, सबको संतुल प्यार किया।
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया॥
ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।
पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे ॥60॥
साई जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई।
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई॥
तन में साई, मन में साई, साई-साई भजा करो।
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो॥
जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा।
और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा॥
तो बाबा को अरे ! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।
तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी॥
जंगल, जगंल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को।
एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को॥
धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।
दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का ही गुण गाया॥
गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े।
साई का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े॥
इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान।
दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान॥
एक बार शिरडी में साधु, ढ़ोंगी था कोई आया।
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया॥
जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वह भाषण।
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन ॥70॥
औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति।
इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुक्ति॥
अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से।
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से॥
लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी।
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी॥
जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए।
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए॥
औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा।
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा॥
दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।
अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो॥
हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।
प्रमुदित वह भी मन- ही-मन था, लख लोगों की नादानी॥
खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।
सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक॥
हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।
या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ॥
मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को।
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को ॥80॥
पलभर में ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।
महानाश के महागर्त में पहुँचा, दूँ जीवन भर को॥
तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को।
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साई को॥
पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर।
सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर॥
सच है साई जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।
अंश ईश का साई बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में॥
स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर॥
वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तःस्थल।
उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विह्वल॥
जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है।
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है॥
पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।
दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के॥
स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है इस दुनिया में।
गले परस्पर मिलने लगते, हैं जन-जन आपस में॥
ऐसे अवतारी साई, मृत्युलोक में आकर।
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर ॥90॥
नाम द्वारका मस्जिद का, रखा शिरडी में साई ने।
दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साई ने॥
सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साई।
पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साई॥
सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।
सौदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान॥
स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे।
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे॥
कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे।
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे॥
रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके।
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे॥
ऐसी समुधुर बेला में भी, दुख आपात, विपदा के मारे।
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे॥
सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे।
दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे॥
जाने क्या अद्भुत शिक्त, उस विभूति में होती थी।
जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी॥
धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साई के पाए।
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए ॥100॥
काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साई मिल जाता।
वर्षों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता॥
गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर।
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साई मुझ पर॥
पहले साई के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं।
कैसे शिरडी साई आए, सारा हाल सुनाऊं मैं॥
कौन है माता, पिता कौन है, ये न किसी ने भी जाना।
कहां जन्म साई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना॥
कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं।
कोई कहता साई बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं॥
कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानंद हैं साई।
कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साई॥
शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।
कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साई की करते॥
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साई हैं सच्चे भगवान।
बड़े दयालु दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवन दान॥
कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात।
किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात॥
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।
आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर॥
कई दिनों तक भटकता, भिक्षा माँग उसने दर-दर।
और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर॥
जैसे-जैसे अमर उमर बढ़ी, बढ़ती ही वैसे गई शान।
घर-घर होने लगा नगर में, साई बाबा का गुणगान ॥10॥
दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम।
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम॥
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन॥
कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान।
एवं अस्तु तब कहकर साई, देते थे उसको वरदान॥
स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल।
अन्तःकरण श्री साई का, सागर जैसा रहा विशाल॥
भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत ब़ड़ा धनवान।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान॥
लगा मनाने साईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो॥
कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ घर में मेरे।
इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे॥
कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया॥
दे दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर।
और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर॥
अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने , दिया भक्त को यह आशीश ॥20॥
'अल्ला भला करेगा तेरा' पुत्र जन्म हो तेरे घर।
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर॥
अब तक नहीं किसी ने पाया, साई की कृपा का पार।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार॥
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।
सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार॥
मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।
साई जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस॥
मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी।
तन पर कप़ड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी॥
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था।
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था॥
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था॥
ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साई का था।
जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था॥
बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।
साई जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार॥
पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूरति।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साई की सूरति ॥30॥
जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया।
संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अन्त हो गया॥
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से।
प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साई की आभा से॥
बाबा ने सन्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।
इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में॥
साई की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।
लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ॥
'काशीराम' बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था।
मैं साई का साई मेरा, वह दुनिया से कहता था॥
सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में।
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साई की झंकारों में॥
स्तब्ध निशा थी, थे सोय, रजनी आंचल में चाँद सितारे।
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे॥
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय ! हाट से काशी।
विचित्र ब़ड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी॥
घेर राह में ख़ड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।
मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि प़ड़ी सुनाई॥
लूट पीटकर उसे वहाँ से कुटिल गए चम्पत हो।
आघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो ॥40॥
बहुत देर तक प़ड़ा रह वह, वहीं उसी हालत में।
जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में॥
अनजाने ही उसके मुंह से, निकल प़ड़ा था साई।
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को प़ड़ी सुनाई॥
क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो॥
उन्मादी से इ़धर-उ़धर तब, बाबा लेगे भटकने।
सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने॥
और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला।
हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला॥
समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त प़ड़ा संकट में।
क्षुभित ख़ड़े थे सभी वहाँ, पर प़ड़े हुए विस्मय में॥
उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है।
उसकी ही पी़ड़ा से पीडित, उनकी अन्तःस्थल है॥
इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई।
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई॥
लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गा़ड़ी एक वहाँ आई।
सन्मुख अपने देख भक्त को, साई की आंखें भर आई॥
शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा, बाबा का अन्तःस्थल।
आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल ॥50॥
आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी।
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी॥
आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।
उसके ही दर्शन की खातिर थे, उम़ड़े नगर-निवासी॥
जब भी और जहां भी कोई, भक्त प़ड़े संकट में।
उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में॥
युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।
आपतग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी॥
भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साई।
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई॥
भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।
राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला॥
घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना।
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना॥
चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।
और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी॥
सब को स्नेह दिया साई ने, सबको संतुल प्यार किया।
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया॥
ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।
पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे ॥60॥
साई जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई।
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई॥
तन में साई, मन में साई, साई-साई भजा करो।
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो॥
जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा।
और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा॥
तो बाबा को अरे ! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।
तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी॥
जंगल, जगंल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को।
एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को॥
धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।
दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का ही गुण गाया॥
गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े।
साई का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े॥
इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान।
दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान॥
एक बार शिरडी में साधु, ढ़ोंगी था कोई आया।
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया॥
जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वह भाषण।
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन ॥70॥
औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति।
इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुक्ति॥
अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से।
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से॥
लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी।
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी॥
जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए।
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए॥
औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा।
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा॥
दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।
अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो॥
हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।
प्रमुदित वह भी मन- ही-मन था, लख लोगों की नादानी॥
खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।
सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक॥
हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।
या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ॥
मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को।
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को ॥80॥
पलभर में ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।
महानाश के महागर्त में पहुँचा, दूँ जीवन भर को॥
तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को।
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साई को॥
पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर।
सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर॥
सच है साई जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।
अंश ईश का साई बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में॥
स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर॥
वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तःस्थल।
उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विह्वल॥
जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है।
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है॥
पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।
दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के॥
स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है इस दुनिया में।
गले परस्पर मिलने लगते, हैं जन-जन आपस में॥
ऐसे अवतारी साई, मृत्युलोक में आकर।
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर ॥90॥
नाम द्वारका मस्जिद का, रखा शिरडी में साई ने।
दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साई ने॥
सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साई।
पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साई॥
सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।
सौदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान॥
स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे।
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे॥
कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे।
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे॥
रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके।
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे॥
ऐसी समुधुर बेला में भी, दुख आपात, विपदा के मारे।
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे॥
सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे।
दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे॥
जाने क्या अद्भुत शिक्त, उस विभूति में होती थी।
जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी॥
धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साई के पाए।
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए ॥100॥
काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साई मिल जाता।
वर्षों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता॥
गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर।
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साई मुझ पर॥
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